“My motto is not to change the face of country. Country will be changed by people’s unity. My Motto is to change the mindset of people.”
Tuesday, December 9
Monday, August 11
खुदीराम बोस
कलकत्ता के मिदनापुर जिले में बहुवैनी गांव के निवासी श्री रामधन बोस के पांच पुत्र थे त्रैलोक्य, कमलकान्त, द्वारिकानाथ, ईश्वरचन्द और तारा प्रसाद। उनके बडे़ पुत्र त्रैलोक्यनाथ नरजोत राजा के दारवार में तहसीलदार थे। उनकी पत्नी थी लक्ष्मीप्रियादेवी। त्रैलोक्यनाथ के तीन बेटियां थीं। अपरूपा, सरोजनी और सबसे छोटी नैनी बाला। उनके दो पुत्र भी हुए, जो असमय ही चल बसे।
बोस दम्पत्ति पुत्र की कामना हेतु मां काली की आराधना करते थे। मां काली की कृपा से उनके घर एक बाल का जन्म हुआ। त्रैलोक्य नाथ बालक के जन्म से बहुत प्रसन्न थे। परन्तु अपने पूर्व दोनों पुत्रों की मृत्यु को याद करते हुए बालक के भविष्य को लेकर आशंकित थे। वे अपनी इस चिन्ता को मुहल्ले की बूढ़ी महिला अनुपमा चैधरी को अवगत कराया और अनुपमा ने अन्य बुजुर्ग स्त्रियों से मन्त्रणा की फिर एक टोटका सुझाया कि अगर ’’लक्ष्मीप्रिया बालक की मां बालक को किसी और को बेच दे तो बच्चे के सिर पर जो देवी संकट होंगे, वह टल जायेंगे। फिर त्रैलोक्य नाथ की बड़ी बेटी जिसे अपने भाई से असीम प्यार था उसने बोला बाबूजी भईया को मैं खरीदूंगी। त्रैलोक्यनाथ ने पूछा की तू खरीदेगी किस चीज से तो अपरूपा ने कहा तीन मुट्ठी खुद्दी से तथा एक कटोरे से छोटे टुकड़ों वाला चावल ले आई जिन्हें बंगाल मे खुदी कहा जाता है। अपरूपा ने मां को खुदी की कटोरी सौंपकर भाई को अपने गोद में ले लिया। फिर उस बालक के नामकरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हुई। तब उस बुजुर्ग महिला अनुपमा चैधरी ने कहा कि इस बच्चे को तीनों बहनों ने खरीदा है इसका नाम वे ही रखेंगी और तब अपरूपा के मुख से निकल पड़ा ’’खुदीराम’’। इस नाम पर सबकी सहमति बन गई। तीन मुट्ठी खुदी से बने खुदीराम।
खुदीराम और उनकी बहनों का अपने माता पिता से ज्यादा दिन तक साथ नहीं रहा। 18 अक्टूबर, 1895 को उनकी माता को देहान्त हो गया। दोनों बड़ी बहनों का भी विवाह हो चुका था और छोटे-छोटे बच्चों की खातिर त्रैलोक्यनाथ को दूसरा विवाह करना पड़ा परन्तु दोनों बच्चे अपनी सौतेली मां को स्वीकार नहीं कर पाये और दुर्भाग्यवश विवाह के दूसरे सप्ताह के अनंत में 14 फरवरी 1896 को त्रैलोक्यनाथ का भी देहान्त हो गया। तब खुदीराम छह वर्ष के थे। फिर बहन अपरूपा ने खुदीराम को अपने पास हटगछिया जहां उनका ससुराल था वहां ले आई और वे वहां रहने लगे।
एक दिन खुदीराम बाजार जा रहे थे तो उन्होंने दखा एक दुकान पर एक अंग्रेज मिठाई खरीद रहा है। मिठाई लेने के बाद उसने दुकानदार को पैसे नहीं दिए और दुकानदार ने जब पैसे मांगे, तो उसने उसे मारना शुरू किया, कोई भी व्यक्ति पिटते हुए दुकानदार को बचाने के लिए नहीं पहुंचा। दुकानदार अंग्रेज से रहम की भीख मांगने लगा। जब खुदीराम घर वापस आ गया, दीदी से पूछा कि दुकानदार को एक अंग्रेज ने मारा और बाजार में हलवाई के समर्थन में कोई बोला क्यों नहीं? बहन ने बोला तू अभी छोटा है इसलिए यह बात नहीं समझेगा। खुदीराम ने पुनः वही प्रश्न किया तब बहन बोली ’’क्योंकि हम गुलाम हैं’’। तब से वे हर गलत बात का विरोध करने लगे और उनके मन में अनुचित बात के लिए विद्रोही भावना पैदा होने लगी। हम गुलाम क्यों हैं?
खुदीराम शारीरिक रूप से कमजोर थे, परन्तु बचपन से ही साहसी व लौह इच्छा शक्ति वाले थे। उन्होंने अल्प आयु में ही स्वामी विवेकानन्द, बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय तथा रविन्द्रनाथ ठाकु
र का साहित्य पढ़ना प्रारम्भ किया। बंकिम बाबू के आनंदमठ ने उन्हें विशेष रूप से प्रभावित किया था। वे हमेशा घर के पास के काली मंदिर में जाया करते थे और घंटों तक बैठे रहते और देश की दुर्दशा पर चिन्तन करते। वे सोचते कि किसी भी मूल्य पर इस देश से अंग्रेजों को भगाना है। ये मुट्ठी भर अंग्रेज पूरे भारत पर राज करते हैं। हमारे ऊपर अत्याचार करते हैं और हम इनका विरोध नहीं कर पाते।
एक दिन मंदिर का पुजारी आया और बोला मैं एक महीने से लगातार तुम्हें यहां आते हुए देख रहा हूं। तुम्हारी क्या समस्या है? तब खुदी राम ने बोला कि वह राष्ट्र की स्वतंत्रता के बारे में सोचता है और नहीं जानता कि वह कैसे प्राप्त की जा सकती है। तब पुजारी ने कहा बेटा पहले बडे़ हो जाओ, दुनिया को देखो तब तुम्हें स्वयं राह सूझ जायेगी। तब खुदीराम ने बाहरी दुनिया देखने का निश्चय किया और वे बिना किसी को कुछ बताये घर से निकल पडे़। उनकी बहन को उनका लिखा पत्र मिला। उस पत्र में उन्होंने कहा कि ’’मेरे लिए यह सम्भव न था कि मैं एक साधारण गृहस्थ का जीवन स्वीकार करता। आगे की पढ़ाई करना भी मुझे निरर्थक लगने लगा था। अतः मैंने सोचा कि इस स्थिति में मैं आप लोगों पर व्यर्थ बोझ बनकर क्यों रहूं। मैंने सन्यास लेने का निर्णय किया है। आप सबसे प्रार्थना है कि मेरी सभी त्रुटियों को क्षमा करें।’’
दोस्तो वह ईश्वर की खोज में नहीं निकले थे, अपने देश के लोगों को निकट से जानने समझने निकले थे। उन्होंने देश के खातिर परिवार से सन्यास लिया। जब वे एक एक गांव पहुंचे तो उन्हें एक वृद्ध मिला। उससे उन्होंने पानी पीने की इच्छा प्रकट की। वह पानी पिलाने हेतु उन्हें अपने घर ले गया। खुदीराम ने वृद्ध के जीवन के बारे में पूछा। तब उन्हें पता चला कि वृद्ध के दो पुत्रों का देहान्त हुआ था और बेटे की मृत्यु के बाद वृद्ध की हालत बहुत खराब थी। उस वृद्ध ने उन्हें बोला कि तुम मेरे साथ रह लो, खुदीराम के मन में भी यही चल रहा था। वह वहां रूक गये।
वे उस वृद्ध के साथ रहकर खेती का काम सीखने लगे और उसे कामों में हाथ बंटाने लगे तथा उस गांव में रहकर उन्हें गांव की वास्तविक दशा का ज्ञान हुआ। उन्होंने देखा कि गांव के लोग अंधी आस्थाओं के साथ जुडे़ हैं। इसका कारण अशिक्षा, स्त्रियों की स्थिति अत्यन्त दयनीय है। उन्हें केवल बच्चा पैदा करने की मशीन समझा जाता है। गांव के बडे़ जमींदार अंग्रेज साहब बहादुरों के दलालों और प्रतिनिधि की तरह काम करते हैं। मजदूरों को जानवरों की तरह जमींदारों के खेतों में काम करते हुए देखा। उनकी आत्मा देशवासियों की इस दयनीय स्थिति से चित्कार उठी और उनका विद्रोही मन शासन को उखाड़ फेंकने के लिए संकल्पित हो उठा। फिर वे बहन अपरूपा के घर वापस आ गये। खुदीराम ने सातवीं कक्षा के बाद पढ़ाई बन्द कर दी थी। खुदीराम ने जीवन का लक्ष्य स्वयं निर्धारित कर लिया। पढ़ाई में उनकी कोई रूचि न थी। उनके एक अध्यापक थे ज्ञानेन्द्र बोस। उन्होंने खुदीराम की छिपी प्रतिभा को पहचान लिया था और खुदीराम का परिचय अपने छोटे भाई सत्येन्द्रनाथ बोस से कराया जो उस समय एक क्रांतिकारी संगठन बनाने के लिए प्रयत्नशील थे। सत्येन्द्रनाथ बोस विख्यात बुद्धिजीवी और देशभक्त राजनरायण बोस के भतीजे थे। (ये सत्येन्द्रनाथ वही थे, जिन्होंने कन्हाई लाल के साथ जेल में नरेन गोसाई नामक देशद्रोही मुखबिर की हत्या की थी और फांसी पर लटकाये गये थे) सत्येन्द्रनाथ बोस उनके राजनैतिक गुरू हुये। उन्होंने उनसे कहा ’’मैं बचपन से ही मातृहीन हूं, मैंने मातृभूमि को ही अपनी मां मान लिया है, मैं अपनी मां, मातृभूमि की आजादी के लिए अपनी जान न्यौछावर करना चाहता हूं। तब सत्येन्द्रनाथ ने कहा कि मैं एक पार्टी की स्थापना करने जा रहा हूं जिसके माध्यम से युवक हंसते-हंसते अपनी मातृभूमि के लिए अपनी जान न्यौछावर करेंगे। मुझे तुम्हारी जरूरत है। उन लोगों ने मिलकर एक क्रांतिकारी संगठन ’’गुप्त समिति’’ बनाई। खुदीराम की बहन ने तब कहा कि ’’खुदीराम को मैंने तीन मुट्ठी खुदी देकर खरीदा था मेरी चाह थी कि वह सिर्फ मेरा रहे। लेकिन मुझे पता नहीं था कि वह तो देश के लोगों के हाथों खरीदा जा चुका है। मैंने उसे तीन मुट्ठी चावल के टुकड़ों से खरीदा था, लेकिन देश के निर्भीक लड़कों ने उसे मुट्ठी भर खून से खरीद लिया था।’’
धीरे-धीरे खुदीराम क्रांतिकारी गतिविधियों और समाजसेवा में डुबते चले गये। इसी बीच सरकार ने बंग-विभाजन का प्रस्ताव पास किया और बंगाल की जनता ने विरोध प्रारम्भ कर दिया। बंग-विभाजन के विरोध में और विदेशी वस्तुओं के बहिष्कार में समिति ने खुलकर विरोध किया। समिति के लोग अब एक जगत न रहकर अलग-अलग क्षेत्र में कार्य करने लगे।
बंगाल में कोटाई, तामलुक आदि क्षेत्र के अतिरिक्त उड़ीसा के बरपुआ, बारकोट, देवगढ़ आदि क्षेत्रों में समिति के उद्देश्य के प्रचार तथा क्रांतिकारी गतिविधियों के विस्तार का कार्य खुदीराम बोस को सौंपा गया।
खुदीराम ने यह कहकर जूतों का परित्याग कर दिया ’’जब तक देश आजाद नहीं हो जाता, तब तक वे जूते नहीं पहनेंगे। उन्होंने उन सभी जगहों पर घूम-घूमकर युवाओं को अस्त्र-शस्त्र चलाने का प्रशिक्षण दिया। उन्हें मातृभूमि पर प्राण न्यौछावर करने का पे्ररित किया।
1906 की फरवरी में , मिदनापुर में कृषि व बच्चों का एक मेला लगा था , उस मेले में अंग्रेजी सरकार की आलोचना करते हुए , एक "वन्दे मातरम" नमक पर्चों को बाँटने का कार्य खुदीराम को सौंपा गया । उन्हें पर्चा बांटते देख अंग्रेज सिपाही ने पकड़ लियाकी , सिपाही की पकड़ ढीली थी और खुदीराम भागने में कामयाब रहे । कुछ दिनों तक भूमिगत रहने के बाद उन्होंने आत्म समर्पण किया , सबूतों के आभाव रिहा कर दिया गया । यह खुदी राम पर पहला आरोप था । उनपर दूसरा आरोप बंग - भंग के समय 1907 में गवर्नर की अत्या का प्रयास करने में लगा ।
खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी को सत्येन्द्रनाथ के द्वारा एक मत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी दी गई , उन्हों ने कहा तुम लोगों को मुजफ्फरपुर जाना है दुश्मन वहीं है तब उन्हें पता चला "किंग्जफोर्ड" की हत्या करनी है । दोनों अपने नेताओं से दिशा - निर्देश लेकर अप्रैल 1908 में मुजफ्फरपुर पहुँच गये । उन्हों ने कोर्ट में जाकर जज किंग्जफोर्ड की कुर्सी पर जाकर मरने की योजना बनाई परन्तु इस योजना को स्थगित करना पड़ा । फिर उसे क्लब से लौटते समय मरने की योजना बनाई गई । दोनों ने अपना कार्य करने का दिन 30 अप्रैल 1908 निर्धारित किया ।
रात साढ़े आठ बजे एक विक्टोरिया बगी क्लब से बाहर अति दिखाई दी , जैसे हैं बगी सामने से गुज़री खुदीराम ने बम उछाल दिया , परन्तु उस समय किंग्जफोर्ड उसमे नहीं था और खुदीराम की गिरफ़्तारी हुई । अंग्रेज पुलिस उनके पीछे लग गयी और वैनी रेलवे स्टेशन पर उन्हें घेर लिया। अपने को पुलिस से घिरा देख प्रफुल्लकुमार चाकी ने खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी । 11 अगस्त 1908 को उनकी फाँसी देने की तिथि निर्धारित की गई । 10 अगस्त 1908 को उसके वकील कालीदास बोस उनसे मिलने गये । उस भेंट को बंगाल की एक पत्रिका "संजीवनी " ने इस प्रकार प्रकाशित किया ----
" खुदीराम को आज रात्रि के अन्तिम प्रहर फाँसी पर चढ़ाया जाना था । उसके चेहरे की रौनक और ताजगी में जरा भी फर्क नहीं आया था । " कालीदास बोस को देख उन्होंने कहा था , " प्राचीन काल में जिस तरह से राजपूत औरतें चिता की आग में बिना किसी भय के कूद जाती थी , मै भी उसी निर्भीकता के साथ मारूंगा । "
खुदीराम को 11 अगस्त 1908 को प्रातः छह बजे फाँसी चढ़ाया जाना था । सही पौने छह बजे खुदीराम फांसी स्थल पर था । खुदीराम ने गाया --
" हांसी हांसी चोडबो फांसी
देखबे जगत बसी ।
एक बार बिदाय दे माँ
आमि धूरे आसी ।।"
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